देहरादून. देवभूमि उत्तराखंड अपनी लोक संस्कृति और परंपराओं के संरक्षण के लिए जाना जाता है. बात चाहे देवी देवताओं के मेले, जात, कौथिग को मनाने की हो या हमारे पुर्खों द्वारा स्थापित लोक परंपराओं की. अपनी प्रचलित लोक परंपराओं को उत्तराखंड ने पीढ़ी दर पीढ़ी निभाया है.
माना जाता है कि खेतीबाड़ी के काम लगभग पौष महीने में पूरे हो जाते हैं और पहाड़ों पर होने वाली बफबारी के चलते माघ महीना खेतीबाड़ी के कामों से थोड़ा फुर्सत का होता है. जौनसार बावर, रवांई आदि के इलाकों में इस महीने ससुराल गई बेटियों को मायके बुलाकर उनकी आवाभगत की जाती है. इस महीने बेटियों को ससुराल से एक महीने के लिए मायके बुलाया जाता है.
जौनसार बावर में इस त्यौहार को कहीं माघ मरोज तो रवांई की तरफ माग त्यार के रूप में जाना जाता है. बड़कोट निवासी गुलशन बताते हैं कि यह त्यौहारों को मनने की जौनसार व रवांई क्षेत्र में अपनी परंपराएं हैं और यहां अनेक त्यौहार बड़े ही उत्साह से यहां मनाए जाते हैं. गुलशन बताते हैं कि पौष महीने के अंतिम दिन से माघ महीने तक यानी लगभग 13 फरवरी तक माघ मरोज या माघ त्यार उत्साह के साथ मनाया जाता है.
वे कहते हैं कि लोग पौष के महीने में बकरे के मांस को भूनकर व तेल में तल कर बेटियों के लिए रखने की परंपरा थी. बेटियां या शादी-शुदा महिलाएं माघ में मायके आती हैं तब उन्हें यह प्रसाद के रूप मे दिया जाता है़. दिनभर विशेष भोज के साथ गांवों में पौराणिक गीत झोड़े और लोक गीत गाए जाते हैं.
शाम को घरों में भी गीत नृत्य का दौर चलता है. क्षेत्र के विभिन्न गांवों में इस दौरान पौराणिक संस्कृति की छटा देखने को मिलती है. दूई दूसोरा बेणी चोऊ दूसोरा जाणी.., घाटेदा पाछू लागीरोआ मुगलो रालारा.., कानियारे जुईणो घेरेणिये घिरो…, मारे गाडिणो दाईयो नणासारो मौणो…, आदि लोक गीतों पर देर रात तक ग्रामीण झुमते नजर आते हैं. माघ महीने की समाप्ति पर फिर बेटियों को अरसे, स्वाले और अन्न देकर विदा किया जाता है.