-डा. वेणीराम अन्थवाल
उत्तराखण्ड का लोक-जीवन अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा के प्रति हमेशा से सजग रहा है, जीविका के संघर्ष ने उसे प्रकृति का सहगामी बना दिया, जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति और लोक-जीवन एक-दूसरे के पूरक बन गये और एक दूसरे के अस्तित्व को अन्तर्मन से दोनों ने स्वीकार भी किया. जहाँ एक ओर प्रकृति ने लोक-जीवन को संघर्ष के साथ फलने- फूलने का हुनर सिखाया, वहीं दूसरी और लोक-जीवन ने प्रकृति के संरक्षण का अच्छा उपाय ढूंढ निकाला और अनेकों सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं के साथ प्रकृति को जोड़ दिया. प्रकृति के प्रत्येक पहलु का उत्तराखण्ड के ग्रामीण लोक-जीवन में कुछ न कुछ सांस्कृतिक या धार्मिक महत्व अवश्य देखने को मिलता है, जिसका एक सुंदरतम उदाहरण है, फूलदेई.
फूलदेई (Fouldei festival) वैसे तो बच्चों का त्यौहार है परन्तु उत्तराखण्ड के ग्रामीण लोक-जीवन में उम्र दराज लोगों में इसके प्रति असीम उत्साह होता है, विशेष कर मातृशक्ति का, मातायें बच्चों में खूब उत्साह भरती हैं और सहयोग भी करती, उनसे मिलने बाले स्नेह से बच्चे आनन्दित हो, जाते हैं और बड़ी ही तन्मयता के साथ त्यौहार को मनाते हैं. उम्र में कुछ बड़े बच्चे तो नायक बने रहते हैं.
फूलदेई त्यौहार चैत्र की संक्रांति से आरम्भ होता है और बीस प्रविष्ट को बिषकुटु या अंयारकुटु के साथ समाप्त होता है. संक्राति को बच्चे प्रत्येक परिवार की देहली पर फूल रख देते हैं और कुछ गीत गाते चल फुलारी फूंलों क…., यह क्रम आठ प्रविष्ट तक चलता है, आठ प्रविष्ट को प्रत्येक परिवार से बच्चों को गुड़, चावल मिलता है, बच्चे मीठा भात पकाते है..20 प्रविष्ट को बच्चे अपने अपने घरों से चावल और गुड़ ले जाकर पशुओं के साथ जंगल में जाकर मीठा भात बनाते हैं और हरे पत्ते में रखकर थोड़ा पशुओं को खिलाते और फिर स्वयं खाते हैं. ऐसी मान्यता है कि इसके बाद पशुओं पर विष का प्रभाव कम होता है.
लोक- जीवन में नयी फसल के उपयोग पर अनेक धार्मिक परम्परायें हैं, विषकुट की मान्यता में पशुधन को सुरक्षित रखने की भावना है, क्योंकि बसंत आगमन पर नये पत्ते, और कोंपल आती हैं, तो इसे पशुओं की नयी फसल माना जाता है. पहाड़ों में धीरे धीरे बढ़ते पलायन ने लोक पर्व के अनेक ऐसे उत्सवों को सोशल मीडिया में याद करने तक सीमित कर दिया है, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए सोशल मीडिया की यह क्रांति हमारे उत्तराखंड के इन लोकपर्वों को फिर से जीवित करने में सफल होगी और हमारे बच्चे एक दिन फिर कह उठेंगे चल फुलारी फुलों क…..