लोकसभा चुनाव 2024 के लिए उत्तराखंड में 19 अप्रैल को वोट डाले गए। लोकसभा चुनाव 2024 कौन जीतेगा, कौन हारेगा इस बात से ज्यादा इसको लेकर चर्चा शुरू हो गई है कि राज्य भर में मतदाताओं ने चुनाव में उत्साह क्यों नहीं दिखाया। यह लोकसभा चुनाव कई मायने में प्रत्याशियों के हार जीत की संभावना से ज्यादा घटते मत प्रतिशत के मंथन पर केंद्रित हो गया है। उत्तराखंड के अपर मुख्य निर्वाचन अधिकारी श्री विजय कुमार जोगदंडे द्वारा शनिवार को सचिवालय स्थित मीडिया सेंटर में प्रेस ब्रीफिंग में दिए गए मतदान प्रतिशत के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य की 05 लोकसभा सीटों पर 55.89 प्रतिशत मतदान हुआ है। इसमें अल्मोड़ा लोकसभा सीट पर 46.94 प्रतिशत, गढ़वाल लोकसभा सीट पर 50.84 प्रतिशत, हरिद्वार लोकसभा सीट पर 63.50 प्रतिशत नैनीताल-उधमसिंह नगर सीट पर 61.35 और टिहरी गढ़वाल सीट पर 52.57 प्रतिशत मतदान हुआ है। पिछले साल के मुकाबले यह मत प्रतिशत कम है।
उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में मत प्रतिशत कम होना तब और भी चिंताजनक है, जब आगामी सालों में विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन भी होना है। पहाड़ के हिमायती सामाजिक जानकारों के मुताबिक, उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में जब लोग ही कम हो गए हैं तो मतप्रतिशत भी कम होना स्वाभाविक ही है। इसका सीधा मतलब यह है कि इन जिलों में लोगों के नाम भले ही उनके मूल गांव की मतदाता सूची में हैं, लेकिन वे मैदानी जिलों में पलायन कर गए हैं। गौर करने वाली बात यह है कि ग्राम पंचायत और विधानसभा चुनाव में जिन गांवों में 80 प्रतिशत से ज्यादा मतदान होता है उन गांवों में लोकसभा चुनाव में यह उत्साह मतदाताओं में नजर नहीं आया। स्थानीय चुनाव में इसका सीधा कारण प्रत्याशी का एक एक व्यक्ति से जुड़ाव होता है और मतदाता स्थानीय चुनाव में उसके लिए वोट करने अपने पोलिंग बूथ तक पहुंचता है। जबकि लोकसभा चुनाव में ऐसा बहुत कम हो रहा है और खासकर पिछले एक दशक से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के चेहरे पर जो आम चुनाव केंद्रित हो गया है। इससे सत्ताधारी पार्टी के सांसदों ने जनता के बीच जाना छोड़ दिया है। इससे उनका मतदाताओं से प्रत्यक्ष जुड़ाव खत्म हो गया है।
मतदान प्रतिशत घटने की वजह यह भी है कि पिछले दशक से जनता ने जिन प्रतिनिधियों को अपना मत दिया वे पार्टी के जनता से ज्यादा पार्टी के कार्यक्रमों में सक्रिय हो गए और धरातल पर जन समस्याओं से उनका संपर्क दूर हो गया। इस एक दशक में चुनाव जीतने के लिए जन सरोकार से ज्यादा टिकट पाने की होड़ और अपना टिकट बरकरार रखने की जोड़तोड़ अहम बन गई और विधायक-सांसदों के पांच साल इसी में खत्म हो गए।
उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक जानकार श्री तेजराम सेमवाल के मुताबिक, जनता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि सत्ता में आने के बाद पार्टी के कार्यक्रमों में अपना चेहरा बड़े नेताओं को दिखाने में ही व्यस्त रहते हैं। वे अपना 25 प्रतिशत समय भी जन सरोकारों में दें तो लोग मतदान के लिए इस कदर उदासीन नहीं होंगे। सेमवाल जी ने कहा कि पिछले 10 साल में अब मतदाता इससे तंग आ चुका है और वह यह जानता है कि उसका मत अपने क्षेत्र के विकास के लिए नहीं, बल्कि किसी एक व्यक्ति को सांसद-विधायक बनाकर उसकी कई पुश्तों के लिए एशोआराम के बंदोबस्त तक सीमित हो गया है। उन्होंने कहा कि जनप्रतिनिधियों की अकर्मण्यता से मतदाता उदासीन हो रहे हैं और यह लोकतंत्र के लिए उचित नहीं है।