उत्तराखंड में मेले थौल राज्य की देव संस्कृति, आपसी मेल मिलाप एवं मनोरंजन के प्रमुख केंद्र रहे हैं. टिहरी जनपद के मसूरी के निकट जौनपुर की अगलाड़ नदी (Aglad River) में भी एक ऐसा ही मेला हर साल लगता है. पिछले कोरोना काल में यह मेला दो साल बंद रहा और दो साल बाद यह भव्य त्योहार इस बार रविवार 26 जून को धूमधाम से मनाया गया. इसी मौण मेला की ऐतिहासिकता पर लेखक डॉ. पवन कुदवान (Dr. Pawan Kudwan) जी ने विस्तरित जानकारी दी है आप भी पढ़ें मौण मेले का महत्व और इतिहास-
भले आपसी मेल मिलाप एवं मनोरजंन हेतु इस मेले का स्थानीय समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास है किंतु टिहरी रियासत के परमार वंश की ऐतिहासिकता भी मौण से जुड़ी है. मसूरी के निकट लगने वाले इस अलगाड़ मौण में ब्रिटिश स्वीकृति के आदेश भी औपनिवेशिक व्यवस्था को प्रमाणित करतें हैं. हिमालयन गजेटियरों में भी मौण मेले (maun mela) का उल्लेख औपनिवेशिक लेखकों ने किया है.
ऐसा माना जाता है कि टिहरी रियासत के राजा नरेन्द्र शाह द्वारा इस मेले को रियासतकालीन समय में संरक्षण दिया गया था, स्वयं राजा मौण मेले में प्रतिभाग करते थे. जहां यह सामाजिक सौहार्द एवं आपसी भाईचारे का प्रतीक है. वहीं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में इसमें लड़ाई-झगड़े की परम्परा भी रही है, ऐसा उल्लेख लोक गीतों में मिलता है. तब इसमें पुरूषों के साथ-साथ बच्चें एवं महिलायें भी भाग लेती थी. यमुना घाटी में लगने वाला यह मौण रवांई, जौनपुर, जौनसार, हिमाचल तक आकर्षण का आधार है. यह जून माह के आखिरी सप्ताह में प्रतिवर्ष लगता है. जो अभी दो दिन पूर्व आयोजित हुआ.
इस मेले के आयोजन की व्यवस्था भी अद्भुत रही है. न कोई विशेष आयोजक अपितु आपसी पट्टियों/खतों में कार्य विभाजन होता है. यह सामूहिकता की एक बड़ी मिसाल है. किस गाँव के लोगों ने इस बार टेमरू पाउडर बनाना है. कितना बनाना है, यह सब पूर्व निर्धारित रहता है. पारम्परिक गाजे-बाजों के साथ नदी में ही लोक नृत्य देखने को मिलता है.
ऐतिहासिक मौण पर्व (maun mela) को मनाने का आधार कृषि कार्यों की उन्नति के लिए है. यमुना घाटी की लोक संस्कृति में पारम्परिक खेती बाड़ी आज भी गहरी कामकाजी संस्कृति का हिस्सा है. नदी तटों के आस पास क्यारियां/सेरों में धान, साटी (चावल की एक प्रजाति) आदि फसलें उत्पादित की जाती हैं. पूर्वजों को टेमरू (Temeru) का जड़ीबूटी आधारित औषधीय ज्ञान था. जहाँ टेमरू के पाउडर से मछलियों को एक प्रकार का नशा लग जाता है. जिससे आसानी से वे पकड़ ली जाती हैं. वहीं इस पाउडर से बची छोटी मछलियों में प्रजनन क्षमता में भी वृद्धि होती है. अलगे साल हेतु पुनः पर्याप्त मछलियों में और अधिक वृद्धि होती है. इस पर्व को मनाने का दूसरा वैज्ञानिक आधार यह है कि टेमरू पाउडर वाला नदी का पानी क्यारियों/खेतों में जाता है. जिससे खेतों में लगे कीड़े मकोड़ें भी मरते हैं. टेमरू रसायन औषधीय रूप में कीट नाशक भी है. फलस्वरूप फसल पैदावार भी अच्छी हो जाती थी. ऐसा यह एक वैज्ञानिक आधारित लोक मत लोक में सुना जाता है.
मौण का शाब्दिक अर्थ है किसी पर टूट पड़ना अर्थात यहाँ मछलियों पर टूट पड़ना ( पकड़ना)….आज के दौर में भले मौण मेले पर दूसरा चिंतन करना स्वाभाविक है. किंतु आज से 200 वर्ष पूर्व की सांस्कृतिक/शैक्षिक/भौगोलिकता विषम थी. अर्थात पारम्परिक सार्थकता रही. नदी घाटियों में पर्यावरणीय संतुलन बनाना भी इसका मौलिक आधार था.
निष्कर्ष रूप में, अगलाड़ नदी में डाले जाने वाले चार मौण होते थे, जिन्हें राजकाल में वैधानिक मान्यता प्राप्त थी. घुराणु का मौण परोड़ी गाँव के नीचे तथा घुराणु की बाग के पास, घाण्डु मौण गैड़ गाँव के नीचे डाला जाता था. मंझ मौण जिसे “राज मौण” के नाम से जाना जाता है. छौती के नीचे डाला जाता था और इसमें राजा भी सिरकत करता था. राजा नरेन्द्र शाह ने इसी मौण को ऐतिहासिकता दी है. वर्तमान समय में जो मौण मनाया जाता है यह बुराड़ी अगलाड़ नदी के पास इसे “भिण्ड” मौण कहा जाता है. लेखक बताते हैं कि इस मेले के बारे में अधिक जानकारी हेतु पवन कुमार गुप्ता जी द्वारा लिखित पुस्तक ” रौंत्याऊ जौनपुर” में सुंदर और विस्तार से उल्लेख किया गया है.