गढ़वाली-कुमाऊनी भाषा सदियों से उत्तराखंड के सांस्कृतिक ताने-बाने का अभिन्न अंग रही है, लेकिन इस भाषा के प्रति युवा पीढ़ी और उत्तराखंड सरकार की बेरुखी से अब इसके अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो हमारी यह भाषा विलुप्त हो जाएगी। गढ़वाली-कुमाऊनी भाषा की जमीनी हकीकत को लेकर पढ़ें- वरिष्ठ पत्रकार श्री शीशपाल गुसाईं जी का लेख-
सांस्कृतिक विविधता और विरासत को बनाए रखने के लिए भाषाओं का संरक्षण एक महत्वपूर्ण पहलू है। भाषा सिर्फ संचार का जरिया नहीं है, बल्कि यह समुदाय की पहचान और इतिहास का प्रतिबिंब भी है। यह देखना निराशाजनक है कि दुनिया भर में कई भाषाएं विलुप्त होने की कगार पर हैं। अनुमान है कि 2050 तक 3500 भाषाओं पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। इनमें 197 भाषाएं भारत की हैं, जिनमें उत्तराखंड की बंगाणी भाषा भी है। उत्तराखंड की मुख्य रूप से बोली जाने वाली भाषाएं गढ़वाली और कुमाऊनी भी कम खतरे में नहीं है। गढ़वाली कुमाऊनी भाषा सदियों से उत्तराखंड के सांस्कृतिक ताने-बाने का अभिन्न अंग रही है, हालांकि भाषाओं को बढ़ावा देने और सुरक्षित करने में की पहल की कमी इन भाषाओं को भी खतरे में डाल रही है।
युवा पीढ़ी का कम रूझान गढ़वाली-कुमाऊनी के अस्तित्व के लिए चिंताजनक
हाल के अनुमानों के मुताबिक, गढ़वाली-कुमाऊनी बोली भाषा धारा प्रवाह बोलने वाले लगभग कुल 4 लाख लोग ही बचे हैं। अगर यही स्थिति रही, तो अगले एक दशक में इन भाषाओं के विलुप्त होने का खतरा है। गढ़वाली और कुमाऊनी के पतन में योगदान देने वाले कारकों में से एक बेहतर अवसरों की तलाश में उत्तराखंड से लोगों का दूसरे राज्य में पलायन है। अनुमान है कि उत्तराखंड में 35 से 40 लाख प्रवासी वर्तमान में देश के अन्य भागों में रहते हैं, जिनमें से 25% गढ़वाली और कुमाऊनी बोली भाषा में पारंगत हैं। नए वक्ताओं की कमी विशेष रूप से युवा पीढ़ी के बीच इन भाषाओं के अस्तित्व के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है।
क्षेत्रीय भाषाओं के लिए कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात पंजाब सतर्क
उत्तराखंड में गढ़वाली-कुमाऊनी भाषाओं के प्रति दिखाई गई उदासीनता के विपरीत कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलुगू गुजरात पंजाब उड़ीसा बंगाल और भोजपुरी जैसे कई अन्य राज्य अपनी स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय कदम उठा रहे हैं। इन राज्यों में स्थानीय सरकारें स्कूलों में क्षेत्रीय भाषाओं की शिक्षा अनिवार्य बना रही है, जिससे भविष्य की पीढ़ियों के लिए उनका अस्तित्व निरंतर सुनिश्चित हो सके।
उत्तराखंड सरकार को उठाने होंगे ठोस कदम
उत्तराखंड सरकार के लिए गढ़वाली और कुमाऊनी भाषाओं के संरक्षण के महत्व को पहचानना और उन्हें बढ़ावा देने और सुरक्षित करने के लिए ठोस कदम उठाना अनिवार्य है। इन भाषाओं को उनके अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए शिक्षा प्रणाली, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और मीडिया में शामिल करने के प्रयास किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त भाषा पुनरोद्धार कार्यक्रम, भाषा प्रलेखन, भाषा संरक्षण कार्यशालाएं जैसी पहल इन लुप्तप्राय भाषाओं की संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
सांस्कृतिक विरासत खत्म होने का भी खतरा
गढ़वाली और कुमाऊनी भाषाओं के विलुप्त होने के सांस्कृतिक विरासत और विविधता को अपूरणीय क्षति होगी। सरकार नेताओं, शिक्षकों और भाषा के प्रति उत्साही लोगों सहित सभी हित धारकों के लिए एक साथ आना इन लुफ्तप्रायः भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन की दिशा में का महत्वपूर्ण है केवल सामूहिक प्रयासों के माध्यम से ही हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं की गढ़वाली और कुमाऊनी जैसे बोली भाषा आने वाली पीढियां के लिए हमारे सांस्कृतिक प्रदेश को समृद्ध करती रहे।