डॉ. पवन कुदवान
जोशीमठ के भू धंसाव ने एक बार फिर विकास के भूखे मानव को उसकी असलियत दिखा दी है. प्राकृतिक आपदा, दैविक संकेतों के बाद भी नीति नियंता विकास के नाम पर एतिहासिकता को भूल कर धरती के जख्म और गहरा कर रहे हैं, परिणाम स्वरूप अब जोशीमठ जैसा सनातन संस्कृति का गांव अपने ऊपर लादे गए बोझ से दरक उठा है. अवश्य पढ़ें- जोशीमठ की दरारों में पहाड़ के आँसू पर डॉ. पवन कुदवान जी का यह लेख.
…मानव उडयारों (प्राकृतिक वासों) में रहता था! इन वासों ने उसे कभी पीड़ा नहीं दी, कारण प्रकृति और मानव की यह साझी विरासत थी! जिसका आधार अपनापन था! मानव विकास पथ पर चला प्रकृति को रौंदने लगा! प्रकृति ने भी आत्मीयता का संयम तोड़ा विकास के भूखे मानव को उसकी असलियत दिखा दी!
विश्व की प्राचीनतम मानव सभ्यताओं में हड़प्पा कालीन विकसित सभ्यता के पतन के अनेक कारणों में पर्यावरणीय बदलाव भी एक था! जिसके आज भी हमें 8000 वर्ष पुराने उजड़े खण्डरों के अवशेष मिलते हैं! इतिहास हमेशा मानव को समझाता है, कहता है पीछे मुड़कर भी आंकलन करो! सम्भव है ऐसे में विकास विनाश की शर्त पर नहीं होगा! यदि शर्त विनाश ही है तो फिर यह विकास कैसा?
शंकराचार्य जी की तपस्थली ज्योर्तिमठ, नरसिंह की दैविक शक्ति, भगवान ब्रदीनाथ जी की शीतकालीन पूजा स्थली, कत्यूरियों का कार्तिकेयपुर/ब्रह्मपुर! पैनखण्ड के रूप में यहां की मूलवासी तंगण जाति का निकटस्थ व्यापारिक केन्द्र/तिब्बत, चीन के साथ वस्तु विनिमय व्यापार का केन्द्र! तब यह टंकणौर प्रदेश भी कहा जाता था.
हेलंग के पास टंगणी गांव आज भी प्राचीन अवशेष स्वरूप समझा जा सकता है! तंगण जाति जड़ी-बूटी में दक्ष थी. सातवीं सदी में यहां की जड़ी-बूटियां असीरिया तथा मौर्य काल में बेबीलोन तक पहुंचती थी! 8वीं सदी में संस्कृत में लिखे यहां के वैद्यों के चिकित्सीय ग्रंथों का अनुवाद अरबी में हुआ! अरब देशों में यहांके वैद्य बुलाये जाते थे. ऐसा उल्लेख इतिहासकार डा. शिव प्रसाद डबराल “चारण” के उत्तराखण्ड के इतिहास में मिलता है. इतनी बड़ी पारम्परिक धरोहरीय चिकित्सीय, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विरासत लिए जोशीमठ की प्राचीनता अपने वज़ूद के लिए आज संघर्ष कर रही है! अपना समूल इतिहास उजड़ते हुए सिसकते आंसूओं में सिसक रही है! जिसके दोषी आज के हम अंधे विकासवादी सोच के मानव है! जो निजी स्वार्थ में इतिहास के ऊपर आधुनिकता की कमजोर बुनियाद में ऐतिहासिकता को उजाड़ दिया.
यह हिमालयी क्षेत्र नवीन वलित पर्वत श्रृंखलाओं का है! भौतिक स्वरूप में हिमालय यहांशिशु/शैशवकाल में होने के कारण इसमें भौतिक बदलाव की प्रक्रिया जारी है! यह अभी स्थाई जमाव में नहीं है! ऐसे में इसमें भारी निर्माण कार्यों को भू- वैज्ञानिकों द्वारा अपने जांच तथ्यों में स्पष्ट रूप से मनाई की गई थी! किंतु विनाश को न्यौता हमने स्वयं दिया है! जोशीमठ का यदि भौतिक संरचना का भौगोलिक अतीत भी टटोलें तो मालूम होता है यह भू- स्खंलन/ मोरेन के ढेर में जमी ढलाननुमा जमीन है, जिसमें धंसने की पूर्व संभावना थी. ऐसे में इसके नीचे सुरंग आदि निर्माण कार्य की क्या सार्थकता है?
कत्यूरी शासकों को भी हो गया था भू-धंसाव की प्रामाणिकता का बोध
उत्तराखण्ड में ऐतिहासिक कत्यूरी वंश की यह पहली राजधानी थी. कत्यूरियों ने भी सातवीं/आठवीं सदी में इसे स्थानान्नतरित करके बैजनाथ ले गए. नरसिंह देवता की दैविक दोष की कथा के साथ वैज्ञानिक तथ्य की भू-धंसाव की प्रामाणिकता का बोध कत्यूरी शासकों को भी हो गया था. अर्थात सुरक्षा दृष्टिकोण का ऐतिहासिक खाका भी हमारे पास था. 1936 में विदेशी प्रो. हेम एण्ड गैंनसर ने हिमालयी क्षेत्र में भ्रमण किया और अपनी पुस्तक पर मेन सेंट्रल थ्रस्ट उल्लेखित करते हुए जोशीमठ के धंसने के बारे में स्पष्ट रूप से लिखा! 1976 की कमिश्नर एम.सी. मिश्रा रिपोर्ट ने भी स्पष्ट कर दिया था, इस क्षेत्र में भारी निर्माण कार्य विनाश को निमंत्रण देना है!
करूणामयी जख्म कभी नहीं भरेंगे
आश्यर्य और अचरज़ की बात यह है कि रैणी गांव विश्व प्रसिद्ध चिपको वूमैन, पर्यावरण के गांधी हिमालय पुत्र पूज्य पद्मभूषण सुंदर लाल बहुगुणा जी, पर्यावरणविद चण्डी प्रसाद भट्ट जी की कर्म स्थली है. जिन्होंने पर्यावरण का संदेश दुनिया को तब दे दिया था, जब स्वीडन के स्टॉकहोम में 5 जून 1974 में विश्व का पहला पर्यावरणीय चिंतन सिल्यारा रैणी गांव के चिंतन के बाद हुआ. आखिर दुनिया को सचेत करने वालों के घरों में ऋषिगंगा में मानव निर्मित आपदा से लेकर आज जोशीमठ भी सिमट गया. यह बड़े प्रश्न हैं जो हमारी छाती पर लगने वाले ऐसे तीर हैं जिन्हें भले वक्त के साथ बाहर निकाल भी दिया जायेगा किंतु मार्मिक एवं करूणामयी जख्म कभी नहीं भरेंगे.
हिमालय का यह अति संवेदन क्षेत्र जोन-5 है. हम चार दिन चांदनी में पांचवें दिन में जोन फाइव क्यों नहीं समझ पाये? आज भी नहीं समझते हैं! क्यों हमने “पहाड़ पर लॉलटेन” में इतना उजाला कर दिया कि हमारी पुरखों की विरासतें उजड़ गई हैं! बड़े बांधों को पर्यावरणविद पद्म भूषण सुंदर लाल बहुगुणा जी राक्षस के रूप में पुकारते थे! टिहरी बांध के नीचे फॉल्ट लाइन भी अच्छे संकेत नहीं देती है! जब कभी 8 रीचर स्केल से ऊपर का भूंकप आयेगा! तबाही की कहानी का गवाह हमारा विकास न बने! विकास पथ की योजना चार धाम परियोजना पर रवि चोपड़ा कमेटी की रिपोर्ट का भी अनदेखा करना अभी आगे मुसीबतों के बड़े पहाड़ खड़े न हो. उन्होंने इको लॉजिकल सर्वे को इस परियोजना हेतु अनिवार्य सुझाया था.
1938 में कांग्रेस के श्रीनगर गढ़वाल के वार्षिक अधिवेशन में प्रधानमंत्री पं.नेहरू जी के सम्मुख पहाड़ी राज्य की मांग श्रीदेव सुमन जी ने यहां की भौगोलिक एवं विशिष्ट लोक धरोहरों हेतु रखी थी. राज्य भी मिला, लेकिन राजनीति समाजवादी चिंतकों के स्थान पर ठेकेदारों/भू-माफियों में पनपी फलतः खनन/ पहाड़ अतिक्रमण/भारी निर्माण में राजनीति भी खूब फलिभूत हुई. ऐसे में पहाड़ का प्राकृतिक वास भी उजड़ा और पहाड़ी लोक संस्कृति भी शहरों में उतरी! पहड़ियों की असली टोपी तो पहाड़ों में ही है, किंतु प्रतीकों वाली टोपियां शहरों से ऊंची चोटियों को जरूर गिरा रही हैं!
निष्कर्षत: जोशीमठ ही नहीं पूरा पर्वतीय क्षेत्र भू-धंसाव में है. सामरिक आदि महत्त्व लिए 125 किमी की कर्णप्रयाग रेलवे ट्रैक से भी कुछ गांव दरारों से प्रभावित है! विकास प्रक्रिया में पलायन की मार झेल रहे पहाड़ी गांवों को विस्थापित न करना पड़ें. विस्थापन की जो सबसे बड़ी चिंता हैं! उसमें एक गांव क्षेत्र की संस्कृति सभ्यता भी समूल नष्ट हो जाती है, जिसकी रक़म का आंकलन नहीं हो सकता है. इसका दूसरा पक्ष जब भी विस्थापन होता है जो आर्थिक एवं सामाजिक रूप से कमजोर आखिरी कतार में खड़ा व्यक्ति है प्रायः आंसूओं में अपना सब कुछ खो देता है.
जोशीमठ अब धंस चुका है! सरकार से लेकर हमारी नैतिकता बची पहाड़ी अस्मिता को बचा सके, इस ओर कार्य हो. जोशीमठ के आंसू मौन होकर हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड के लोक मानस को भी समझा रहे हैं. प्रकृति पर अतिक्रमण करने वालों का विरोध करना हमारी भी नैतिकता थी. पहाड़ पर बड़ी मशीनों से मजबूत चट्टानों को मत काटो. रेस्टोरेंट/होटल कल्चर को कहां पारम्परिक घरों से अधिक महत्त्व दे रहे हो. पहाड़ ने अपनी बोली भाषा, खान-पान, रहन-सहन, वास सब कुछ प्रकृति अनुरूप दिया है. तेज दौड़ने वाली जल्दी से सांस फूलने वाली संस्कृति की ओर मत भागों. कोदू (मंडवा की रोटी) में इतना कैल्सियम होता है कि पहाड़ों में हम जब बचपन में गिरते पड़ते थे तब भी कभी हमारे हाथ पैर नहीं टूटते थे. एक और सच्ची बात राजनीति में ठेकेदारी/भू-माफियाओं की सोच लोकतंत्र में मत पहुंचाओं. इन्हें भू-वैज्ञानिकों के सर्वे भले पढ़ने आते हो किंतु रेत/बजरी/खनन/ सड़क कटान/पेड़ कटान में भावना कतई समझ नहीं आती है! पहाड़ों में जो दर्द झेल रहे हैं वे आमजन है. तेज, चतुर और बड़े विद्वान तो शहरों से झूठी मार्मिकता में पहाड़ की संवेदनाओं पर चिंतन करते हैं. समाजवादी अर्थव्यवस्था के चिंतक कहीं मिलते हो तो उन्हें लोकतंत्र का नेतृत्त्व दो. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था पहाड़ों हेतु बिल्कुल सार्थक नहीं हैं. हमारी अर्थव्यवस्था तो पैंछू (वस्तु विनिमय की आदन-प्रदान) वाली रही है.
नाक काटकर यदि हम नथ खरीदने की बात करते हैं तो समझ जाइए कैसा सतत अथवा धारणीय/टिकाऊ विकास हम कर रहे हैं1 प्रकृति और मानव की साझी विरासत को आज के विकासवादी हम भूखे मानवों ने अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए बहुत कुछ खत्म कर दिया है और शेष भी समाप्ति की कगार पर ला दिया है.
लोक आस्था के स्थलों पर मानव निर्मित आपदाओं ने दैविक शक्तियों पर भी प्रश्न खड़े कर दिए हैं1 जोशीमठ में अपने उजड़ते घर की पीड़ा में एक वृद्ध माँ ने अपने सिसकते आंसूओं में अपना दर्द ऐसे व्यक्त किया – “नरसिंह देवता, बद्री धाम, दुर्गा मां सभी देवी देवता तो हैं ना यहां, हमने क्या पूजा करनी अब इनकी, इन्हें भी सोचना चाहिए था ना हमारे बारे में….कहां जायें हम अब? मैं कहां अपनी गाय, भैंस को लेकर जाऊं! बेटा बेरोजगार है उसके छोटे छोटे बच्चों को मैं कैसे पालू? मेरा आदमी बूढ़ा और बीमार है…! क्या भगवान को यह नहीं दिखता है?
…आखिर में तब का मूल निवासी अपनी भूमि के लिए कितना अपनत्व रखता था! तीर्थ धाम भी बनायें! औजार निर्माण में पहाड़ भी अपनी खेती बाड़ी आवश्यकता के अनुरूप खोदें. पूरी भूमि को आत्मीय निर्माण शैली में रखा किंतु कहीं पर भी एक पत्थर को धंसने नहीं दिया!…आज के हम स्वयं आंकलन कर सकते हैं! हमारा अपना विरासतीय प्रेम कितना हैं…?